भूजल स्तर में लगातार गिरावट हो रही है। भूजल पेयजल का प्राथमिक स्रोत है। भूजल की कमी के कुछ प्रमुख कारणों में भूजल का अत्यधिक दोहन, शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन शामिल हैं। उपयोग किये जाने वाले कुल जल का लगभग 70 प्रतिशत भूजल स्रोतों से प्राप्त होता है। भूजल की कमी एक गंभीर समस्या है। भूजल यानी धरती के भीतर का पानी, जिसे हम पंप से खींचते हैं, हैंडपंप से निकालते हैं, या गहरा बोर करके निकालते हैं। प्रदेश के बहुत से इलाकों में भूजल का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है, खासकर शहरों की कालोनियों में तो पानी बहुत तेजी से गिर रहा है। औद्योगिक इलाकों का हाल इससे भी बुरा है। भूजल कुछ हद तक तो बरसात के पानी से प्राकृतिक रूप से ही रिचार्ज हो जाता है, लेकिन अब हमारे शहरों की बनावट इस तरह की हो गई है कि बरसात का पानी अपने आप शहरी जमीन में पक्की सड़कें, पक्के मकान और दूसरे सीमेंट के स्ट्रक्चर के कारण जमीन के अंदर जा नहीं पाता है। जब वर्षा का पानी भूजल के रूप में जमीन में नहीं जा पाता है तो जमीन के अंदर बहने वाली गुप्त जलधाराएं, जिन्हें हम एक्वाफिर कहते हैं, वह भी काम नहीं कर पाते हैं। यानी भूजल का धरती के अंदर एक जगह से दूसरी जगह जाने का सिलसिला रुक जाता है। यह सभी शहरों की सबसे बड़ी चुनौती है।
इसका अभी सबसे अच्छा उपाय तो यह है कि जो भी नई कॉलोनियां बनें, जो भी नए कमर्शियल कॉम्पलेक्स बनें या कोई भी इमारत हम बनाएं, उसमें ग्राउंड वाटर रिचार्ज सिस्टम जरूर लगाएं। इसके अलावा जिन लोगों के घर पहले से बने हुए हैं, वे लोग भी ग्राउंडवाटर रिचार्ज सिस्टम अपने घरों में लगवा सकते हैं। इससे फायदा यह होता है कि बरसात में जो पानी आपके घर की छत पर गिरता है, कम से कम वह पूरा का पूरा पानी आप अपने घर और आसपास की जमीन के अंदर डाल सकते हैं। इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा ग्राउंड वाटर आपके आसपास ही रिचार्ज होता है, जिससे आपके यहां की वाटर टेबल अपेक्षाकृत धीमे धीमे नीचे जाती है। अगर आप बोरिंग के जरिए पानी नहीं निकाल रहे हैं तब तो आपके पास का भूजल ऊंचा हो जाता है। बढ़ते तापमान और वर्षा के बदलते पैटर्न भूजल जलभृतों की पुनर्भरण दरों को बदलते हैं, जिससे भूजल स्तर में और कमी आती है। सूखा, फ्लैश फ्लड और बाधित मानसूनी घटनाएँ जलवायु परिवर्तन की घटनाओं के उदाहरण हैं जो भारत के भूजल संसाधनों पर दबाव बढ़ा रहे हैं। जल का अकुशल उपयोग, रिसते पाइप और वर्षा जल संचयन के लिये अपर्याप्त अवसंरचनायें सभी भूजल की कमी में योगदान कर सकते हैं। वनों की कटाई जैसे कारकों से भूजल जलभृतों का प्राकृतिक पुनर्भरण कम हो सकता है, क्योंकि इससे मृदा अपरदन बढ़ सकता है और मृदा में रिसते, जलभृतों का पुनर्भरण करते जल की मात्रा में कमी आती है। वैकल्पिक स्रोतों, जैसे उपचारित अपशिष्ट जल, के उपयोग को प्रोत्साहित करने से भूजल की मांग को कम करने में मदद मिल सकती है। ‘ग्रे वाटर’ और ‘ब्लैक वाटर’ के लिये दोहरी सीवेज प्रणाली विकसित करने के साथ-साथ कृषि और बागवानी में पुनर्चक्रित जल के पुनरूउपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिये। जल संरक्षण के महत्व और भूजल की कमी को रोकने की आवश्यकता के बारे में जागरूकता बढ़ाने से व्यक्तियों एवं समुदायों को संवहनीय जल उपयोग अभ्यासों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित करने में मदद मिल सकती है।
भूजल स्तर कम होने के कारण अनेक क्षेत्रों में हानिकारक तत्वों जैसे आर्सेनिक, कैडमियम, फ्लोराइड, निकिल व कोमियम की सान्द्रता भी बढ़ती जा रही है। भूजल की वर्तमान स्थिति को सुधारने के लिये भूजल का स्तर और न गिरे इस दिशा में काम किए जाने के अलावा उचित उपायों से भूजल संवर्धन की व्यवस्था करने की जरूरत है। इसके अलावा, भूजल पुनर्भरण तकनीकों को अपनाया जाना भी आवश्यक है। वर्षाजल संचयन (रेनवॉटर हार्वेस्टिंग) इस दिशा में एक कारगर उपाय हो सकता है। भूजल की मॉनिटरिंग एवं प्रबन्धन में भविष्य में ऐसी समुन्नत तकनीकों को और बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है। भूजल के बगैर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यही कारण है कि खगोलविद पृथ्वी-इतर किसी अन्य ग्रह पर जीवन की तलाश करते समय सबसे पहले इस बात की पड़ताल करते हैं कि उस ग्रह पर जल मौजूद है या नहीं। ‘जल है तो कल है’ तथा ‘जल जो न होता तो जग खत्म हो जाता’ जैसी उक्तियों के माध्यम से हम जल की महत्ता को ही स्वीकारते हैं। भूजल, जिसे भूमिगत या भौमजल कहना ही उचित है, जमीन के अन्दर होता है। भूमिगत जलस्रोत का इस्तेमाल कुओं की खुदाई अथवा हैंडपम्पों और ट्यूबवेलों द्वारा भी किया जा सकता है। तालाबों और कुंओं में एक विशेष अन्तर यह होता है कि जहाँ कुओं द्वारा केवल भूमिगत जलस्रोत का ही उपयोग होता है वहीं तालाबों में भूमिगत जल के अलावा बाहरी जल का जमाव भी हो जाता है। यह बाहरी जल वर्षा का जल हो सकता है और बाढ़ या नदी का बरसाती जल भी। गाँवों में, जहाँ आज भी 80 प्रतिशत लोगों को नल का पानी उपलब्ध नहीं है, पेयजल के लिये भूमिगत जल पर ही निर्भर रहना पड़ता है। इसे कुओं, हैंडपम्पों तथा ट्यूबवेलों द्वारा प्राप्त किया जाता है। भारत में कृषि कार्य के लिये किसान भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं। इस समय देश में 50 प्रतिशत से भी अधिक सिंचाई भूमिगत जल से होती है। उद्योगों में भी भूमिगत जल की बड़ी माँग है। खाद्य प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग) से लेकर वस्त्र उद्योगों तक में भूमिगत जल का व्यापक रूप से इस्तेमाल होता है। भूमिगत जल का इस्तेमाल कोई नया नहीं है। भारत में प्रागैतिहासिक काल से भूमिगत जल का इस्तेमाल हो रहा है। कुएँ जलापूर्ति के महत्त्वपूर्ण साधन रहे हैं। मत्स्य पुराण में भी कुआँ खोदे जाने का उल्लेख है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से पता चला है कि 3000 ई.पू. में सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों ने ईंटों से कुओं का निर्माण किया था। मौर्यकाल में भी ऐसे कुओं का उल्लेख मिलता है। चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल (300 ई.पू.) के दौरान कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी रहट के जरिए कुओं से सिंचाई का विवरण प्राप्त होता है। वराहमिहिर की ‘बृहद संहिता’ नामक ग्रंथ में भूमिगत जल के स्रोतों का पता लगाने की विभिन्न विधियों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में विशेष रूप से इस बात का उल्लेख किया गया है कि किस पौधों, दीमक की बाँधियों तथा मृदा एवं चट्टानों से जमीन के नीचे के पानी यानी भूमिगत जल के बारे में संकेत प्राप्त होता है। आज भी जल वैज्ञानिक मिट्टी की विशेषताओं, पेड़ों एवं झाड़ियों तथा जड़ी-बूटियों आदि की मौजूदगी से भूमिगत जल की मौजूदगी का पता लगाते हैं।