‘दाजी’ कमलेश पटेल।
प्रकृति संरक्षण दिवस प्रकृति के सौन्दर्य और उसके महत्व का उत्सव मनाने का दिन है। यह हमारे प्राकृतिक संसार के सामने खड़ी चुनौतियों के प्रति जागरुकता बढ़ाने का भी दिन है। दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष जिसका हमारे पूर्वज बहुत सम्मान करते थे वह है हमारे बाहरी पर्यावरण और हमारे आंतरिक स्व के बीच परस्पर जुड़ाव। जिस प्रकार हम अपने आस-पास फैली प्राकृतिक दुनिया की रक्षा और संरक्षण के लिए प्रयास करते हैं, उसी प्रकार हमारे आंतरिक पर्यावरण के महत्व को पहचाना भी उतना ही आवश्यक है, जो अकेले ही बाहरी पर्यावरण की रक्षा, पोषण तथा संरक्षण कर सकता है। लेकिन बीते दिनों में पूर्वजों ने पर्यावरण का संरक्षण भला कैसे किया होगा?
प्राचीन और समकालीन परिपेक्ष्य में प्रकृति का सम्मान:
पूरे इतिहास में, विभिन्न संस्कृतियों ने प्राकृतिक दुनिया के हर पहलू में दैवीय उपस्थिति को पहचानते हुए, प्रकृति के तत्वों के प्रति गहरी श्रद्धा रखी है। हिंदुओं का मानना था कि प्रकृति के प्रत्येक तत्व को सर्वोच्च दिव्यता की अभिव्यक्ति के रूप में पूजा जाता है। वेदों, उपनिषदों और पुराणों के पवित्र ग्रंथ, वर्षा देवताओं, वायु देवताओं और पेड़ों आदि के प्रति गहरी श्रद्धा से भरे हुए हैं। दिव्य और प्राकृतिक संसार के बीच आध्यात्मिक संबंध अविभाज्य है, जो एक ही परम् वास्तविकता के दो पहलू हैं। सूफ़ियों की शिक्षाएं प्राकृतिक दुनिया का सम्मान और संरक्षण करने पर भी बहुत ज़ोर देती हैं। हृदय-आधारित ध्यान का उपयोग करते हुए सूफ़ी परम्पराओं में पृथ्वी, अंतरिक्ष, अग्नि, जल तथा वायु जैसे तत्वों को गहरी श्रद्धा के साथ माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि जैन तीर्थंकरों को कुछ देशी पेड़ों के नीचे ध्यान करने के बाद ज्ञान प्राप्त हुआ था।
विलियम वर्ड्सवर्थ, जिन्हें अक्सर “प्रकृति के कवि” के रूप में जाना जाता है, का मानना था कि प्राकृतिक दुनिया की सुंदरता व्यक्तियों को आपसी प्रेम, करूणा और सार्वभौमिक भाईचारे की भावना की ओर ले जा सकती है। शैली ने, “प्रकृति के उपासक” के रूप में अपनी स्वयं-घोषित भूमिका में, मानवता को वास्तविक प्रसन्नता और पूर्णता की ओर मार्गदर्शन करने की प्रकृति की क्षमता को पहचाना।
विभिन्न संस्कृतियों और इतिहास के काल-खण्डों में प्रकृति के प्रति स्थाई श्रद्धा हमें प्राकृतिक संसार के साथ हमारे गहन आध्यात्मिक संबंध की याद दिलाती है। इस संबंध को अपनाने से हमारे पर्यावरण की गहरी सराहना हो सकती है; और हमें आंतरिक शांति, दयालुता और सामंजस्यपूर्ण अस्तित्व के लिए प्रकृति के साथ गहरा संबंध बनाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है।
21वीं सदी में प्रवेश करें और प्रकृति के संरक्षण का संदर्भ ग्रहण करें:
पशुओं और पेड़ों में प्रकृति की रक्षा करने वाली मानवीय भावनाओं का अभाव है। प्रकृति को बचाने के लिए कार्य करने में असफल होना, उसे हस्ताक्षेप करने और संतुलन लाने के लिए आमंत्रित करता है। मेरे आध्यात्मिक गुरू, शाहजहाँपुर के श्री राम चन्द्र ने ज़ोर दिया: “सुधर जाओ या समाप्त हो जाओ।” चरित्र, व्यवहार और अखंडता का व्यक्तिगत परिवर्तन हमारे भीतर शांति का विस्तार करता है, वैश्विक सद्भाव को बढ़ावा देता है।
आध्यात्मिकता और ध्यान का अभ्यास आंतरिक शुद्धि और परिवर्तन के लिए सबसे प्रभावी साधन है।
कार्बन डाइ-ऑक्साइतड और ऑक्सीजन के पारिस्थितिक आदान-प्रदान के अलावा, पेड़ हमारे मानसिक कंपन के साथ भी गहरा संबंध साझा करते हैं। उनकी शांत और शांतिपूर्ण ऊर्जा चिंता और घबराहट को कम कर सकती है। आध्यात्मिक विज्ञान द्वारा समर्थित, हार्टफुलनैस ध्यान के आदिगुरू, फतेहगढ़ के श्री राम चन्द्र ने पेड़ों को प्राणाहुति की आध्यात्मिक ऊर्जा के वाहक के रुप में मान्यता दी।
हालाँकि हम एक दिन इस ग्रह को छोड़ सकते हैं, प्रकृति और हमारी चेतना के बीच स्थायी बंधन बना रहता है। पेड़ों से निकलने वाली आध्यात्मिक ऊर्जा हमारी प्रजाति के आध्यात्मिक अस्तित्व की रक्षा करती है, प्रकृति के साथ एक शाश्वत प्रेम कथा को कायम रखती है।