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कश्मीर फाइल्स ।

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श्रेष्ठन्यूज़ देहरादून उत्तराखंड संपादक वन्दना रावत।

देहरादून वर्ष 1990 के दौरान कश्मीर में कश्मीरी पंड़ितों के साथ जो हुआ, वह किसी से छिपा नहीं है। इसके बावजूद जो लोग इस सच को नहीं जानते थे, सकते में है। और जो जानते है, वे भी भावनात्मक रूप से संवेदना प्रकट कर रहे है। जबकि एक वर्ग जो खुद को तथाकथित धर्मनिर्पेक्षता का अंबरदार समझता है, इस पूरे प्रकरण को स्वांग घोषित करने में लगा हुआ है। यकीन भी कैसे हो कि एक हमसाया ही धर्म के नाम पर अपने पडोसी का कत्ल कर रहा था। और हैरानी की बात है कि इस्लाम को आर्दश धर्म की उपमा देने वाले, देश में धार्मिक आजादी की वकालत कर स्कूलों में हिजाब की मांग करने वाले हिन्दू से नफरत का एजेंडा चलाने वाले भी अब मुंह छिपाते फिर रहें है। क्योंकि अब उन्हें इस बात से खतरा लगने लगा है कि यदि हिन्दू भी जाग गया तो छिपने की जगह नहीं मिलने वाली।   

ऐसे तथाकथित सैक्यूलर लोग संविधान की आड़ में गजवा-ए-हिन्द का एजेंड़ा चलाते है। इस काम के लिए यह लोग सैक्यूलर हिन्दूओं की मुर्खता को आड के तौर पर इस्तेमाल कर आगे कर लेते है। यह धूर्तता किसी से छिपी नहीं है। लेकिन चूंकि हिन्दू सैक्यूलरों की आंख से कथित तौर पर बुद्विजीवी होने के भ्रम का चश्मा नहीं उतरता इसलिए बार-बार जहरीले एजेंड़े के बाद भी इन जिहादियों को क्षमादान मिल ही जाता है। गौर फरमाया जाये तो कश्मीर फाइल्स के रिलीज होने के बाद किसी भी मुस्लिम विद्वान ने कश्मीर में हुए नरसंहार पर अफसोस प्रकट करने की जहमत नहीं उठायी है। 

बल्कि इसके विपरीत देश के अन्य हिस्से में हुई छुटपुट घटनाओं से इसकी तुलना कर मामले को हल्का बनाने का प्रयास किया जा रहा है। कोई इसको सोशल मीडिया में गोधरा कांड से तुलना करके बता रहा है तो कोई उत्तराखंड़ आंदोलन से इसको जोड़ता है। यह सब धूर्तपना है। बात और विषय को भटकाने का कुत्सित प्रयास भी। लेकिन सच को कब तक भरमाओगे? क्योंकि वह तो एक दिन उजागर होकर रहता है। कश्मीरी पंड़ितों का कत्लेआम करने के बाद पिछले 32 सालों में हालांकि कश्मीरी मुसलमान भी श्रापित जिन्दगी जी रहें है। क्योंकि सुरक्षाबल भले ही सहानुभूतिपूर्वक पेश आते हों, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने उनका वहीं हाल कर रखा है जो कभी इन्होंने कश्मीरी पंड़ितों का घाटी में किया था।

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